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कविता-कौमुदी
 

पाती दई धरि छाती लई दरकी अंगिया उर आनँद भारे।
पूछन को पिय की फुसलात मनो हिय द्वार किंवार उघारे।

११

मङ्गल होत कहै "शिवराज" कहौ केहि के दुःख होत बिसेखो।
कौन सभा महँ बैठि न सोहत को नहिं जानत चित्त परेखो।
कौन निसा ससि को न उदोत भो का लखिकै बिरही दुःख पेखो।
बाँझक पूत बिना आँखियान कुहू निसि में ससि पूरण देखो।

१२

जोग अजोग बिचारे बिना सिर सौंपत भार महा अति तापै।
गाड़र ऊँट किसान करैं यह बात कहा कहि जात है कापै।
"सिंह" जू काग सुहावन होइ तौ काहे को कोऊमरालहियापै।
काम परे पछिताहिँगे वे जे गयंद को भार धरें गदहा पै।

१३

सासु रिसाति झकै ननदी सखित् सिखवै सिखसीखकेबैना।
दै ब्रजवास चबाच महा चहुं ओर चलै उपहास की सैना।
देखत सुन्दरी साँवरी मूरति लोक अलोक की लीक लखैना।
कैसी करौं हटके न रहैं चलि जात तऊ लखि लालची नैना।

१४

आके लगै गृह काज तजै अरु मात पिता हित तात न राखैं।
"सागर" लीनह्नै चाकर चाहकै धीरजहीन अधीन ह्वै भाखैं।
व्याकुल मीन ज्यों नेह नवीन में मानो दई बरछीन की साखैं।
तीर लगै तरवारि लगै पै लगै जनि काहू से काहू की आँखैं।

१५

जाके लगै सोइ जानै व्यथा पर पीर में कोई उपहास करै ना।
"सागर" जो चुभि जात है चित्त तौ कोटि उपाय करैपै टरैना।