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कविता-कौमुदी
 

है तमोगुन के भासकी। कोऊ कहै मृगमद कोऊ कहै राहु
रद कोऊ कहै नीलगिरि आभा आसपास की। भंजन जू
मेरे जान चंद्रमा को छोलि विधि राधे को बनायो मुख सोभा
के विलास की। तादिन ते छाती छेद भयो है छपाकर के
वार पार दीखत है नीलिमा अकास की॥५६॥

मलयज गारा करैं अंगन सिँगारा करैं गहि कर डारा
करैं माल मुकतान की। आरती उतारा करैं पंखा चौर
ढारा करैं छाँहें बिसतारा करैं विसद बितान की॥ मुख
सों निहारा करैं दुःख को बिसारा करैं मनसा इसारा करैं
सारा अँखियान की। मानिक प्रदीपन सों थारा साजि ताराजू
की आरती उतारा करैं दारा देवतान की॥५७॥

कैधों दृग सागर के आसपास स्यामताई ताही के ये
अंकुर उलहि दुति बाढ़े हैं। कैधों प्रेमक्यारी जुग ताके ये
चहूँघा रची नीलमनि सरनि कौ बारि दुःख डाढ़े हैं॥ मूरित
सुकवि तरुनी की बरुनी न होवै मेरे मन आवै ये बिचार
चित गाढ़े हैं। जेई जे निहारे मन तिनके पकरिबे को देखो इन
नैनन हजार हाथ काढ़े हैं॥५८॥

एरे गुनी गुन पाइ चातुरी निपुन पाइ कीजिए न मैलो
मन काहू जो कछ करी। बीरन बिराने द्वार गए को सुभाव
यही मान अपमान काहू रे करी कि जू करी॥ कूर औ कविन्द
चले जात हैं सभा के बीच तोसों तो हटकि देवीदास पलटू
करी। दरवाजे गज ठाढ़े कूकरी सभा के मध्य कूकरी सो
कूकरी औ तू करी सो तू करी॥५९॥

भोरहिं भुखात ह्वै हैं कन्द मूल खात है हैं दुति कुम्हलात
ह्वै हैं मुख जलजात को। प्यारे पग जात ह्वै हैं मग मुरझात
ह्वै हैं थकि जै हैं घाम लागे स्याम कृस गात को। पंडित