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कविता-कौमुदी
 

न काहू कहूँ देह को सवाद जो निरोग देह पाइये॥ घर को
सवाद घरनी को मन लिये रहै धन को सवाद सीस नीचे को
नवाइये। कहै "द्विजराम" नर जानि कै अजान होत खैबे को
सवाद जो पै और को खवाइये॥३०॥

कौशल कुमार सुकुमार अति मारहू ते आली घिरि आई
जिन्हैं शोभा त्रिभुवन की। फूल फुलवाई में चुनत दोउ भाई
प्रेम सखी लखि आई गहे लतिका द्रुमन की। चरन लुनाई दृग
देखे बनि आई जिन जीती कोमलाई औ ललाई पदुमन की।
चलत सुभाई मेरो हियरा डराई हाय गड़ि मति जाय पाय पांखुरी
सुमन की॥३१॥

आजु आली माथे ते सुबेंदी गिरै बार बार मुख पर मोतिन
की लरी लरकति है। धरत ही पग कील चूरे की निकासि
जाति जब तब गाँठ जूरे हू की भरकति है। जानि ना परत
"प्रहलाद" परदेश प्रिय उससि उरोजन सों आँगी दरकति
हैं। तनी तरकति कर चूरी चरकति अंग सारी सरकति
आँखि बाईं फरकति है॥३२॥

म्यान सों कलमदान करतें निकारि तामें स्याही जल
विष में बुझाई डार डार है चारु युक्ति जौहर जगावत सनेह
संग अकिल अनेक तामें सिकिल सुढार हैं॥ "जुगुल किशोर"
चलै कागद धरा पै धाय धारै ना दया को नेकु लागे वार
पार है। पाइ के गँवार गाइ साफ करैं साइति में मुनसी
कसाई की कलम तरवार है॥३३॥

बड़े विभिचारी कुल कानि तजि डारी निज आतम
बिसारी अघ ओघ के निकेत हैं। जटा सीस धारें मीठे बचन
उचारें न्यारे न्यारे पंथ पारें सुभ पंथ पीठ देत हैं॥ गावत
कहानी वेद को न मानी ऐसे उमर बिहानी होत आये