पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४४१

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३८६
कविता-कौमुदी
 

देशमें रहैंगे, परदेश में रहैंगे काहू भेस में रहैंगे तऊ रावरे
कहावेंगे॥२१॥

सुमन मैं बास जैसे सु-मन मैं आवै कैसे ना कह्यो चहत
सो तो हाँ कह्यो चहत है। सुरसरि सुरतनया में सुरसति
जैसे वेद के वचन बाँचे साँचे निवहत है। परवा को इन्दु की
कला ज्यों रहै अंबर मैं पर वाको अच्छ परतच्छ ना लहत है।
बुद्धि अनुमान के प्रमान पर ब्रह्म जैसे ऐसे कटि छीन कवि
"मीरन" कहत हैं॥२२॥

लट की लरक पर भौंह की :फरक पर नैन की ढरक पर
भरि भरि ढारिये। "हरिकेस" अमल कपोल विहँसन पर
छाती उससन पर निसक पसारिये गहरौही गति पर गह
रौही नाभि पर हाँ न हटकति प्यारे नैसुक निहारिये। एक
प्रानप्यारी जू की कटि लचकीली पर ढीली ढीली नजर
सँभारे लाल डारिये॥२३॥

आये सुख पावती न आये सुख पावती हैं हिय की न बात
कछु "सेवक" जतावतीं। कहूँ रहौ कान्ह जू सुहागिन
कहावती हैं चाहती हैं यही और बात न बनावतीं॥ जाके सुख
पाये सुख पावो तुम प्यारे लाल वाहू सुख दीजिये न या मैं
भरमावती॥ जामैं सुख पावो तुम सोई हम करैं यातें हमतौ
तिहारे सुख पाये सुख पावती॥२४॥

खात हैं हरामदाम करत हराम काम घर घर तिनहीं के
अपजस छावेंगे। दोजख में जैहैं तब काटि काटि कीड़े खैहैं
खोपरी को गूद काग टोटनि उड़ावेंगे॥ कहैं करनेस अबैं
घूसनि तें बाजि तजै रोजा औ निमाज अंत जम कढ़ि लाखेंगे।
कबिन के मामले में करैं जौन खामी तौन नमकहरामी मरे
कफन न पावेंगे॥२५॥