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कविता कौमुदी
 

को। प्राणनाथ सरस सभा न सोहै कवि बिन विद्या बिन
बात न नगर बिन नद को॥४॥

केते भये यादव सगर सुत केते भये जातहू न जाने ज्यों
तरैया परभात की। बलि बेनु अंबरीष मानधाता प्रहलाद
कहाँ लौं गनाओं कथा रावन ययात की॥ तेऊ न वचन पाये
काल कौतुकी के हाथ भाँति भाँति सेना रची घने दुःख घात
की। चार चार दिना को चबाउ चाहैं करैं कोऊ अंत लुटि
जैहैं जैसे पूतरी बरात की॥५॥

गो द्विज को पालैं सन्त मारग में चालैं निज शत्रु दल
घालैं रण में तें मन मोरैं ना। सुखद सजीले बीरता में गर-
बीले कुल एकहन ढीले हीनताई के निहोरै ना॥ जाको
सँग धारैं ताको पार निरवारैं दान दाया को संचारैं
धर्म धारै तौन छोरैं ना। युद्धन को पत्री सुनि मोद लहैं अत्री
अति ऐसे सूर छत्री समता में और जोरैं ना॥६॥

ऐंठे ऐंठे बोलैं अधिकर निज खोलैं कहे काम को न
डोलैं समझाय जब हारिये। द्विज कौन होते कुल चीकने न
मोते इहि भाँति भाषि सोते में मसाल एक धारिये॥ तुरंत
जगाय ताके मुख में लगाय दीजे जनन भगाय छन एक लौ
निहारिये। जानो महा खोटा चट पकरि कै झोंटा ताको ऐसे
सूद सोंटा जोहि जूतन सुधारिये॥७॥

न्याव नित साँचे बलदेव रंगराचे मामिला को खूब
जाँचे हाल बाँचे ते विशेखा मैं। रुचत न रारी उपकारी श्रुति
भारी भाव वंश धन धारी कृतिकारी रीति रेखा मैं॥ जागो
यश वेश त्यों बड़ाई देश देश काहू पच्छ को न पेश औ न लेश
लोभ लेखा मैं। सम रङ्क भूप झगरे को करैं कूप तेई ईश्वर
के रूप हैं अनूप पंच देखा में॥८॥