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कविता-कौमुदी
 

महाराज मानसिंह के पास चले गये और उन्हीं से साहित्य का मर्म समझने लगे। इनकी बुद्धि बहुत तीव्र थी। इससे थोड़े ही समय में इन्होंने साहित्य में अच्छी जानकारी प्राप्त कर ली।

महाराज मानसिंह इन्हें बहुत चाहते थे। उन्हीँने इन्हें "कविराज" की पदवी दी थी। उन्हीँ के कारण अवध के सब राजा रईस इनका बड़ा सम्मान करते थे। कविता द्वारा इन्हें हाथी, घोड़ा, धन, वस्त्र, गाँव आदि वस्तुए समय समय पर उपलब्ध होती रहती थीं। इन्होंने राजाओं की प्रशंसा में अनेक ग्रन्थों की रचना की। इनके रचे हुये ग्रन्थों के नाम ये हैं:—प्रताप रत्नाकर, प्रेम रत्नाकर, लक्ष्मीश्वर रत्नाकर, रावणेश्वर कल्पतरु, महेश्वर विलास, मुनीश्वर कल्पतरु, महेन्द्र भूषण, रघुवीर विलास, कमलानन्द कल्पतरु, मानसिंह जंगाष्ठक, रामचन्द्र भूषण, सरजू लहरी, हनुमत शतक, राम रत्नाकर, नायिका भेद। इनके प्रायः सब ग्रन्थ भारत जीवन प्रेस, बनारस, में छपे हैं।

कविता तो इनकी ऊँचे दरजे की नहीं है। परन्तु सुनते हैं, कविता पढ़ने की इनमें विचित्र शक्ति थी। श्रोताओं के मन में ये शीघ्रही प्रभाव जमा लेते थे।

सं॰ १९६१, भाद्रपद कृष्ण ११, को इन्होंने अयोध्या जी में शरीर छोड़ा।

इनके रचे कुछ छंद हम नीचे प्रकाशित करते हैं:—

भानुवंश भूषण महीप रामचन्द्र वीर रावरो सुजस फैल्यो
आगर उमङ्ग मैं। कवि लछिराम अभिराम दूना शेषहूँ सों
चौगुनो चमकदार हिमगिरि गङ्ग मैं॥ जाको भट घेरे तासों
अधिक परे हैं और पचगुनो हीरा हार चमक प्रसङ्ग मैं। चन्द