पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४३१

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३७६
कविता-कौमुदी
 

सकल वस्तु सँग्रह करें आवै कोउ दिन काम॥
बखत परे पर ना मिलै माटी खरचे दाम॥४॥
कारज करिय बिचारि कै कर्म लिखी सो होय॥
पाछे उपजै ताप नहिँ निन्दा करै न कोय॥५॥
पुन्य करिय सो नहिँ कहिय पाप करिय परकास॥
कहिबे सों दोउ घटत हैं बरनत गिरिधरदास॥६॥
पावक बैरी रोग रिन सेसहु रस्त्रिये नाहिँ॥
ए थोरे हूँ बढ़हिं पुनि महा यतन सों जाहिँ॥७॥
अलस प्रमादी रागरमि नीति न देखत जौन॥
उर सद असद विवेक नहिँ अधम अवनि पति तौन॥८॥
मिल्यो रहत निज प्राप्तिहित दगा समय पर देत॥
बन्धु अधम तेहिँ कहत हैं जाको मुख पर हेत॥९॥
रूपवती लज्जावती सीलवती मृदु बैन॥
तिय कुलीन उत्तम सोई गरिमाधर गुन ऐन॥१०॥
अतिचंचल नित कलह रुचि पति सों नाहिँ मिलाप॥
सो अधमा तिय जानिये पाइय पूरन पाप॥११॥
जनक वचन निदरत निडर बसत कुसंगत्ति माँहिं॥
मूरख सो सुत अधम है तेहि जनमें सुखनाहिं॥१२॥
सुख दुःख अरु विग्रह विपति यामें तजे न संग॥
गिरिधर दास बखानियै मित्र सोइ वर ढङ्ग॥१३॥
सुख मैं सङ्ग मिलिं सुख करै दुःख मैं पाछो होय॥
निज स्वारथ की मित्रता मित्र अधम है सोय॥१४॥
आप करै उपकार अति प्रति उपकार न चाह॥
हियरी कोमल सन्त, सम सुहृद सोइ नरनाह॥१५॥
मन सौँ जग कौ भल चहै हिय छल रहे न नेक॥
सो सज्जन संसार में जाको विमल विवेक॥१६॥