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गिरिधरदास
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घूघट नैन दुरावन चाहति दौरति सो दुरि ओट ह्वै आधे।
नेह न गोयो रहै सखि लाज सोँ कैसे रहै जल आल के बाँधे।

धिक नरेश बिनु देस देस धिक जहाँ न धरम रुचि।
रुचि धिक सत्य बिहीन सत्य धिकबिनुविचारसुचि॥
धिक विचार बिनु समय समय धिक बिना भजन के।
भजनहु धिक बिनु लगन लगन धिक लालच मन के॥
मन धिक सुन्दर बुद्धि बिनु बुद्धि सुधिक बिनु ज्ञाम गति।
धिक ज्ञान भगति बिनु भगति धिक नहिं गिरिधरपरप्रेमअति॥


जाग गया तब सोना क्या रे।

जो नर तन देवन को दुर्लभ सो पाया अब रोना क्या रे॥
ठाकुर से कर नेह अपाना इंद्रिन के सुख होना क्या रे।
जब वैराग्य ज्ञान उर आया तब चाँदी औ सोना क्या रे॥
दारा सुवन सदन में पड़ के भार सबोंका ढोना क्या रे।
हीरा हाथ अमोलक पाया काँच भाव में खोना क्या रे॥
दाता जो मुख माँगा देवे तब कौड़ी भर दोना क्या रे।
गिरिधरदास उदर पूरे पर मीठा और सलोना क्या रे॥

दोहे

धनहिँ राखिये विपति हित तिय राखिय धन त्यागि॥
तजिये गिरधरदास दोउ आतम के हित लागि॥१॥
लोभ न कबहूँ कीजिये या मैं बिपति अपार॥
लोभी को बिस्वास नहिँ करे कोऊ संसार॥२॥
लोभ सरिस अवगुन नहीँ तप नहिँ सत्य समान॥
तीरथ नहिँ मन शुद्धि सम विद्या सम धन आन॥३॥