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कविता-कौमुदी
 

माहुर मधुर समान भूप भ्राता जिमि जानै।
शत्रु होय निज दास लोक आज्ञा सब मानै॥
पाप होय हरिजाप सम को दुराब नहिं भू परै।
आनन्द। कंद ब्रजचन्द जब करुणानिधि किरपा करै॥

माधव तुम बिन सब जग झूठो।

रवि, ससि, अनिल, अनल, जल, थल में तुमरो ही तेज अनूठो॥
नन्दकिशोर और नहिँ जाँचूँ राजी रहो चाहे रूठो।
मैं हूँ अनन्य आपको सेवक कृष्णदास पै तूठो॥

जग में हरि बिन कोई न सँगाती।
वाको मत बिसरो दिन राती॥

पल पल आयु घटै नर तेरी ज्यों दीपक बिच बाती।
चेत चेत नर चेत चतुर हो गइ न लौट फिर आती॥
सब अपने स्वारथ के संगी सुत बनिता अरु नाती।
कृष्णदास की त्रास मिटावें जनम मरन से साथी॥


 

लक्ष्मणसिंह

राजा लक्ष्मणसिंह यदुवंशी क्षत्रिय थे। जन्मभूमि आगरा, जन्म संवत् १८८३, मृत्यु संवत् १९५३।

राजा लक्ष्मणसिंह संस्कृत, हिन्दी, अरबी, फ़ारसी, बंगला और अँग्रेजी के अच्छे ज्ञाता थे। सन् १८५७ वाले सिपाही विद्रोह में इन्होंने अंग्रेज़ों को बड़ी मदद पहुँचाई