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द्विजदेव
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ये शाकद्वीपी ब्राह्मण थे। कवियोँ और विद्वानोँ का ये बड़ा आदर करते थे। ये स्वयं एक अच्छे प्रतिभाशाली कवि थे। इनका रचा हुआ कोई ग्रन्थ हमारे देखने में नहीं आया। इनके उत्तराधिकारी महामहोपाध्याय महाराजा सर प्रताप नारायण सिंह के॰ सी॰ आई॰ ई॰, उपनाम ददुआ साहब ने "रसकुसुमाकर" नामक अलंकार और रस सम्बन्धी हिन्दी-कविता का एक बड़ा संग्रह-ग्रन्थ प्रकाशित किया है। उसमें द्विजदेव के बहुत से छंद मिलते हैं। उसमें से और कुछ अन्य कविता-संग्रहों में से इनके थोड़े से छंद चुनकर हम नीचे प्रकाशित करते हैं:—

जावक के भार पग परत धरा पै मंद गंध भार कचन
परी हैं छूटि अलकैं। द्विजदेव तैसियै विचित्र बरुनी के भार
आधे आधे द्वगन परी हैं अध पलकैं। ऐसी छवि देखि अंग
अंग की अपार बार बार लोल लोचन सु कौन के न ललकैं।
पानिप के भारत सँभारति न गात लङ्क लचि लचि जात
कच भारन के हलकैं॥१॥

भूले भूले भौंर बन भाँवरे भरेंगे चहूँ फूलि फूलि किंशुक
जके से रहि जाय हैं। द्विजदेव की सौं वह कूजनि बिसारि
कूर कोकिल कलंकी ठौर ठौर पछताय हैं॥ आवत बसन्त
के न ऐहैँ जो पै स्याम तो, पै बावरी! बलाय सों हमारेऊ
उपाय है। पीहैं पहिले ही तें हलाहल मँगाय या कलानिधि
की एकौ कला चलन न पाय हैं॥२॥

बाँके संक हीने राते कंज छवि छीने माते झुकि झुकि
झूमि झूमि काहूँ को कछू गनै न। द्विजदेव की सौं, ऐसी
बनक बनाइ बहु भाँतिन बगारे चित चाह न चहू धा चैन॥
पेखि परे पात जो पै गातन उछाह भरे बार बार तातैं तुम्हैं