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कविता-कौमुदी
 

धर्म कर्म कीन्ह्यो केते लोक की बड़ाई को।
कबहूँ न पायो पार विषै भोगताई को॥
बाकी न रह्यो है रघुराज पतिताई को।
मोहिं ना उधारे पतितपावन नाम गाई को॥४॥
मूरुख मानत यही बड़ाई।
राजा भयो बिभौ धन आँधर नहिँ सन्तन शिरनाई।
भोजन मैथुन ऐश करत नित दिय वय वृथा बिताई।
ह्वै पण्डित पढ़ि न्याय व्याकरण भरे घमंड महाई।
सन्त चरण परसत सकुचत शठ जोरत धन बहुताई॥
मन्त्री भयो महाम‌दमातो चलत भुजानि फुलाई।
सन्तन ओर तकत कबहुँ नहिं कालभीति बिसराई॥
धनिक भयो धन धरयोगाड़ि महिजानत रही सदाई।
कबहुँ न हरि हर जनके हेतहिं कौड़िहु कान लगाई॥
भयो राज सामन्त जगत जो हडि परलोक भुलाई।
करत सन्त अपकार जानि अस मीच नगीच न आई॥
कलि कुचालि कहँलों मुख बरणों देखतहो बनि आई।
गुरू होन सब कोउ जग चाहत शिष्य होत सकुचाई॥
सोई बड़ा गुरू सबको सोइ ताकी सत्य बड़ाई।
जो रघुराज सदा संतन की करत चरण सेवकाई॥५॥


 

द्विजदेव

योध्या नरेश महाराजा मानसिंह का उपनाम द्विजदेव था। द्विजदेव अवध के तालुकेदारों के एसोसियेशन के सभापति थे। इनका देहान्त लगभग ५० वर्ष की अवस्था में, सं॰ १९३० में हुआ।