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कविता-कौमुदी
 

पिता के स्वर्गवासी होने पर सं॰ १९१४ में उनको राज्याधिकार मिला। सन् १८५७ के विद्रोह में इन्होंने बृटिश सरकार की बड़ी सहायता की थी, उसके बदले में उनको रायबहादुर की उपाधि मिली थी।

राय रणधीर सिंह साहसी, उदार और बड़े प्रजा हितैषी थे। प्रजा को उन्होंने कभी नहीँ सताया। उनकी सभा पंडितों और दूर दूर के कवियों से भरी रहती थी। कविता का उनको व्यसन था। उन्होंने पाँच ग्रन्थों की रचना की है:—

१—नामार्णव, २—काव्य रत्नाकर ३—सालिहोत्र, ४—भूषण कौमुदा, ५—राग माला। उनके रचे हुये गीत उनकी रियासत में अब तक बड़े प्रेम से गाये जाते हैं। सं॰ १९५२ वि॰ में अयोध्याजी में उन्होंने शरीर त्याग किया। उनके विषय में शिवसिंह ने अपने सरोज में लिखा हैं—"ये राजा कवि कीविदों का बड़ा सम्मान करते हैं। इनके बनाये हुये भूषण कौमुदी, काव्य रत्नाकर ये दोनों ग्रन्थ देखने योग्य हैं।" इससे प्रकट होता है कि उनकी कीर्ति कम से कम शिवसिंह सेंगर के कान तक तो अवश्य ही पहुँच चुकी थी। आज कल सिङ्गरामऊ की गद्दा पर ठाकुर हरपालसिंहजी विराजमान हैं। आशा है, ये भी विद्वानों का सम्मान करेंगे।

राय रणधीर सिंह के कुटुम्बी ठाकुर रघुराजबहादुर सिंह के द्वारा मुझे राय रणधीर सिंह के हस्तलिखित और लेथो में छपे हुये काव्य-ग्रंथ देखने को मिले। इसके लिये मैं ठाकुर रघुराजबहादुर सिंह का बहुत कृतज्ञ हूँ। राय रणधीर सिंह के कुटुम्बियों और गद्दीधरों को उनके ग्रन्थों को सुन्दरता पूर्वक और सस्ता छपवा कर उनकी कीर्ति को चिरस्थायी बना देना चाहिये। हस्तलिखित पुस्तकों को छपवा देना ही