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दीनदयाल गिरि
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खेवनहार गंवार ताहि पर पौन झँकोरै।
रुकी भँवर में आय उपाय चलै न करोरै॥
बरनै दीनदयाल सुमिर अब तू गिरधारी।
आरत जन के काज कला जिन निज संभारी॥९॥
आछी भाँति सुधारि कै खेत किसान बिजोय।।
नत पीछे पछतायगो समै गयो जब खोय॥
समै गयो जब खोय नहीं फिरि खेती ह्वै है।
लै है हाकिम पोत कहा तथ ताको दै है॥
बरनै दीनदयाल चाल तजि तू अब पाछी।
सोई न सालि सँभालि बिहंगन तें विधि आछी॥१०॥
सोई देस बिचारि कै चलिये पथी सुचेत।
जाके जस आनन्द की कविवर उपमा देत॥
कविवर उपमा देत रङ्क भूपति सम जामें।
आवा गवन न होय रहै मुद मङ्गल तामे॥
बरनै दीनदयाल जहाँ दुःख सोक न होई।
ए हो पथी प्रीवन देस को जैयो सोई॥११॥
कोई सङ्गी नहि उतै है इतही को सङ्ग।
पथी लेहु मिलि ताहि तें सब सों सहित उमङ्ग॥
सबसाँ सहित उमङ्ग बैठि तरनी के भाहीं।
नदिया नाव सँयोग फेरि यह मिलिहै नाहीँ॥
बरने दीनदयाल पार पुनि भेंट न होई।
अपनी अपनी गैल पथी जैहैं सब कोई॥१२॥
आहैं प्रबल अगाध जल या में तीछन धार।
पथी पार जो तू चहै खेवनहार पुकार॥
खेवनहार और पुकार वार नहिँ कोऊ साथी।
और व चलै उपाव नाव बिन एहो पाथी॥