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दीनदयाल गिरि
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बनै। कूबरी को कूब काटि लाय दै सिताबी हमैं टोपी करि
ताकी तब गोपी जोगिनी बनै॥१८॥

सुंदर सरस सूहे सोसनी गुलाबी पीरे नाफर नरंगी आंबी
तूसी सजि लायो है। मूँगिया सबज काही कासनी सुन्हेरी
सेत संदली सरबती औ नील दरसायो है॥ अगरई किसमिसी
जोजई कपूरी स्याह तीजन कूँ वाम हेत कामवर छायो है।
चतुर प्रवीन सखी अचरज भयो आज सावन मैं इन्द्र रँगरेज
बनि आयो है॥१९॥

दिया है खुदा ने खूब खुसी करो ग्वाल कवि खाव पिओ
देव लेव यही रह जाना है। राजा राव उमराव केते बादशाह
भये कहाँ तें कहाँ को गयो लाग्यो ना ठिकाना है॥ ऐसी
जिन्दगानी के भरोसे पै गुमान ऐसे देस देस घूमि घूमि मन
बहलाना है। आये परवाना पर चले ना बहाना इहाँ नेकी करि
जाना फेरि आना है न जाना है॥२०॥


 

दीनदयाल गिरि

बाबा दीनदयाल काशी के पश्चिम द्वार पर विनायकदेव के पास रहते थे। इन्होंने सं॰ १८८८ में "अनुराग बाग" नामक ग्रंथ की रचना की। इनके जन्म-मरण, माता पिता आदि का कुछ हाल हमें मालूम नहीं है। नागरी प्रचारिणी ग्रंथमाला में इनकी ग्रंथावली निकल रही है। इनके रचे तीन ग्रंथ हमारे देखने में आये हैं—अनुराग बाग, दृष्टान्त तरंगिणी और अन्योक्ति कल्पद्रुम। ये अच्छे कवि थे इनकी