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कविता-कौमुदी
 

 

षट् ऋतु वर्णन

सरसों के खेत की बिछायत बसंती बनी तामें खड़ी
चाँदनी बसंती रति कंत की। सोने के पलंग पर बसन
बसंती साज सोनजुही मालै हालै हिय हुलसंत की॥ ग्वाल
कवि प्यारो पुखराजन को प्याला पूर प्यावत प्रिया को करै
बात बिलसंत की। राग मैं बसंत बाग बाग मैं बसंत फूल्यो
लाग मैं बसंत क्या बहार है बसंत की॥६॥

ग्रीषम की गजब धुकी है धूप धाम धाम गरमी झुकी है
जाम नाम अति तापिनी। भीजे खस बीजन झले हूँ ना
सुखात स्वेद गात ना सुहात बात दावा सी डरापिनी॥
ग्वाल कवि कहै कोरे कुंभन तें कूपन तें लै लै जलधार बार
बार मुख थापिनी। जब पियो तब पियो अब पियो फेर अब
पीवत हू पीवत मिटै न प्यास पापिनी॥७॥

जेठ को न त्रास जाके पास ये बिलास होंये खस के
मवास पै गुलाब उछ्लो करैं। बिही के मुरख्वे डब्बे चाँदी
के चरक भरे पेठे पाग केबरे में बरफ परयो करे॥ ग्वाल कवि
चन्दन चहल मैं कपूर चूर चंदन अतर तर बसन खरयो करै।
कज मुखी कंज नैनी कंज के बिछौनन पै कंजन की पंखी कर
कंज तें करलो करे॥८॥

तरल तिलंगन के तुंग तेह तेजदार कानन कदंब को
कदंब सरसायो है। सूबेदार मोर घोर दादुर हवलदार बग
जमादार औ तंबूर पिक भायो है॥ ग्वाल कवि बाढै गरराट
घन घट्टन की कंपनी को कंपू झला होय छवि छायो है।
भूपतु उमंगी कामदेव जोर जंगी जान मुजरा को पावस
फिरंगी बनि आयो है॥९॥