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लल्लूजी लाल
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तिनको लख्यो न बेदहू में निरधार है॥ जानियत याते रघु-
राय की कला को कहूँ काहू पार पायो कोऊ पावत न पार
है। कौन दिन कौन छिन कौन घरी कौन ठौर कौन जाने
कौन को कहा धों होनहार है॥

३५

व्याधहूँ ते बिहद असाधु हौं अजामिललौं ग्राह तें गुनाही
कहौ तिनमें गिनाओगे। स्योरी हैं। न सूद्र हौं न केवट कहूँ
को त्यों न गौतमी तियाहौं जापै पग धरि आओगे॥ रामसों
कहत पद‌माकर पुकारि तुम मेरे महा पापन को पारहूँ न
पाओगे। झूठोही कलंक सुनि सीता ऐसी सती तजी हौं तो
साँचोहूँ कलंकी ताहि कैसे अपनाओगे॥


 

लल्लूजी लाल

ल्लू जी लाल गुजराती ब्राह्मण, आगरे में रहते थे। ये सं॰ १८६० में वर्तमान थे। कुछ दिनों तक ये कलकत्ते के फोर्ट विलियम कालेज में नौकर थे, वहीं इन्होंने ब्रजभाषा मिश्रित वर्तमान बोलचाल की भाषा में भागवत दशम स्कंध की कथा के आधार पर प्रेमसागर नामक एक ग्रन्थ लिखा। कथा गद्य में है। कहीं कहीं हिन्दी के कुछ दोहे चौपाइयाँ भी हैं। वर्तमान गद्य के जन्मदाता येही कहे जाते हैं। प्रेमसागर के सिवाय इनके रचे हुये निम्नलिखित ग्रंथ हैं—लतायफ हिन्दी, भाषा हितोपदेश, सभा विलास, माधव विलास, सतसई की टीका, भाषा व्याकरण, मसादिरे भाषा, सिंहासन