पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/३८१

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३२६
कविता-कौमुदी
 

२२

फाग के भीर अभीरनि त्यों गहि गोविन्द लैगई भीतर गोरी।
भाय करी मनकी पदमाकर ऊपर नाय अबीर की झोरी॥
छीन पितम्मर कम्मर तैं सु बिदा दई मीड कपोलन रोरी।
नेन नचाय कही मुसुक्याय लला फिर आइयो खेलन होरी॥

२३

कै रतिरङ्ग थकी थिर ह्वै परयंकमें प्यारी परी मुख बाय कै।
त्यो पदमाकर स्वेद के बुन्द रहे मुकताहल से तन छाय कै॥
बिन्दु रचे मेहँदीके लसे कर तापर यो रह्यो आनन आय कै।
इन्दु मनों अरविन्द पै राजत इन्द्रबधून के वृन्द बिछाय कै॥

२४

रे मन साहसी साहस राख सु साहस सों सब जेर फिरैंगे।
त्यों पदमाकर या सुख में दुःख त्यों दुःखमें सुख सेर फिरैंगे॥
वैसे ही वेणु बजावत श्याम सुनाम हमारो हू टेर फिरैंगे।
एक दिना नहिं एक दिना कबहूँ फिर वे दिन फेर फिरैंगे॥

२५

जैसो तै न मोसों कहूँ नेकहूँ डरात हुतो तैसो अब हौंहूँ
नेकहूँ न तोसाँ डरिहौं। कहैं पदमाकर प्रचंड जो परैगो तो
उमड करि तोसों भुजदंड ठोंकि लरिहौं चलो चलु चलो
चलु बिचल न बीच हो ते कीच बीच नीच तो कुटुम्ब को
कचरिहौं येरे दगादार मेरे पातक अपार तोहिं गंगा के
कछार में पछार छार करि हौँ॥

२६

जगजीवन को फल जानि परयो धनि नैननि को ठहरैयतु है।
पदमाकर ह्यो हुलसै पुलकै तनु सिन्धु सुधा के अन्हैयतु है॥