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ठाकुर
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है। हाय! इन लोगन को कौन सा उपाय जिन्हैं लोक को न
डर परलोक को न डर है॥९॥
लगी अंतर में करै बाहिर को बिन जाहिर कोऊ न मानतु है।
दुःख औ सुख हानि औ लाभ सबै घर की को बाहर भानतु है॥
कवि ठाकुर आपनी चातुरी सों सबही सब भाँति बखानतु है।
पर बीर मिलै बिछुरैकी विथा मिलिकै बिछुरै सोई जानतु है॥१०॥
वा निरमोहिनी रूप की रासि जौ ऊपर के उर आनति ह्वै है।
बार हू बार बिलोकि घरी घरी सूरति तौ पहचानति ह्वै है।
ठाकुर या मन की परतीति है जो पै सनेह न मानति ह्वै हैं।
आवत हैं नित मेरे लिये इतनों तो बिसेसहू जानति ह्वै है॥११॥
यह प्रेम कथा कहिये किहिसों सौ कहेसों कहा कोऊ मानत हैं।
पर ऊपरी घोर बँधायो चहैं तन रोग न वा पहिचानत हैं।
कहि ठाकुर जाहि लगी कसकै सु तो को कसकै उरआनत है।
बिन आपने पाय बेवाय गये कोऊ पीर पराई न जानत है॥१२॥
ये जे कहैं ते भले कहिबौ करैं मान सही सौ सबै सहि लीजै।
ते बकि आपुहि ते चुप होयँगी काहे को काहुवै उत्तर दीजै॥
ठाकुर मेरे मते की यहै धनि मान कै जोबन रूप पतीजै।
या जग मैं जनमैं को जियै को यहै फल है हरि सों हित कीजे॥१३॥
एक ही सों चित चाहिये और लों बीच दगा को परै नहिँ टाँको।
मानिक सों चित बेंचि कै जू अब फेरि कहाँ परखावनो ताको।
ठाकुर काम नहीं सब को इक लाखन में परबीन है जाको।
प्रीति कहा करिबे में लगै करिकै इक और निबाहनो वाको॥१४॥
वह कंजसों कोमल अंग गुपालको सोऊ सबै पुनि जानती है।
बलि ने रुखाई धरे कुम्हलात इतौऊ नहीँ पहिचानती हौ॥
कवि ठाकुर या कर जोरि कह्यो इतने पै बनै नहि मानती है।
दृग वान ये भौंह कमान कहौ अब कानलौं कौनपैतानती है॥१५॥