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कविता-कौमुदी
 

बरनन करने को क्या बरनूँ बरनूँगा जेती बानी है।
ग्रह तीन उच्च के पड़े हुये जानी यह यूसुफ़ सानी है॥
ससि भवन जीव सफरी में गुर कन्या बुध जोतिस ज्ञानी है।
इस लालबिहारी की सीतल क्या अर्द्ध चन्द्र पेशानी है॥६॥
चन्दन की चौकी चारु पड़ी सोता था सब गुन जटा हुआ।
चौके की चमक अधर विहँसन मानो एक दाड़िम फटा हुआ।
ऐसे में ग्रहन समै सीतल एक ख्याल बड़ा अटपटा हुआ।
भूतल ते नभ, नभ ते अवनी, अग उछलै नट का बटा हुआ॥७॥


 

ब्रजबासीदास

ब्रजबासी दास का जन्म सं १७६० के आस पास हुआ। इन्होने सं॰ १८२७, माघ शुक्ल पंचमी, सोमवार को ब्रजबिलास प्रारम्भ किया था। इस ग्रन्थ में कुल इतने छंद हैं:—दोहा ८८९, सोरठा ८८९, चौपाई १०६००, हरिगीनिका १०६।

इस ग्रन्थ में भगवान कृष्ण की ब्रजलीला का वर्णन है। तुलसीदास के रामायण के ढंग पर यह लिखा गया है। इसकी कविता कृष्ण-भक्तों को विशेष प्रिय है। यहाँ ब्रजविलास से चंद्रमा के लिये कृष्ण के मचलने की कथा उद्धृत करते हैं:—

ठाढ़ी अजिर जसोदा रानी गोदी लिये श्याम सुखदानी
उदै भयो ससि सरद सुहावन लागी सुत को मात दिखावन
देखहु श्याम चंद यह आवत अति सीतल दृग ताप नसावत
चितै रहे हरि इक टक ताही करते निकट बुलावत ताही
मैया यह मीठों है खारों देखत लगत मोहि यह प्यारी
देहि मँगाय निकट मैं लैहों लागी भूख चंद मैं खैहों