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कविता-कौमुदी
 

साई अवसर के पड़े को न सहै दुःख द्वन्द।
जाय बिकाने डोम घर वै राजा हरिचन्द
वै राजा हरिचन्द करें राजा मरघट रखवारी।
धरे तपस्वी वेष फिरे अर्जुन बलधारी॥
कह गिरिधर कविराय तपै वह भीम रसोई।
को न करै घटि काम परे अवसर के साईं॥१४॥
साईं ये न विरोधिये छोट बड़े सब भाय।
ऐसे भारी वृक्ष को कुल्हरी देत गिराय॥
कुल्हरी देत गिराय मारके जमीँ गिराई।
टूक टूक कै काटि समुद में देत बहाई॥
कह गिरिधर कविराय फूट जेहि के घर नाई।
हिरणाकश्यप कंस गये बलि रावण भाई॥१५॥
लाठी में गुण बहुत हैं सदा राखिये संग।
गहिर नदी नारा जहाँ तहाँ बचावै अंग॥
तहाँ बचावै अग झपटि कुत्ता कह मारै।
दुश्मन दाबागीर होयँ तिनहूँ को झारे॥
कह गिरिधर कविराय सुनो हो धूर के बाठी।
सब हथियारन छाँड़ि हाथ महं लीजै लाठी॥१६॥
कमरी थोरे दाम की आबै बहुतै काम।
खासा मलमल बाफता उनकर राखै मान॥
उनकर राखै मान बुन्द जहँ आड़े आवै।
बकुचा बाँधे मोट रात को झारि बिछावै॥
कह गिरिधर कविराय मिलत है थोरे दमरी।
सब दिन राखै साथ बड़ी मर्यादा क़मरी॥१७॥
बिना बिचारै जो करै सो पीछे पछिताय।
काम बिगारै आपनो जग में होत हँसाय॥