पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/३५७

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३०२
कविता-कौमुदी
 

कह गिरिधर फुहर के याही धैना।
कजरौटा बरु होइ लुकाठन आँजै नैना॥४॥
शुकने कह्यो सँदेस सेमर के पग लागिहौ।
पग न परै वहि देस जब सुधि आवै फलन की॥५॥
साँई बेर न कोजिये गुरु पंडित कवि यार।
बेटा बनिता पँवरिया यज्ञ करावन हार॥
यज्ञ करावनहार राज मन्त्री जो होई।
विप्र परोसी वैद्य आप को तपै रसोई॥
कह गिरिधर कविराय युगनते यहि चलिआई।
इन तेरहसों तरह दिये बनि आवै साईं॥६॥
सोना लादन पिय गये सूना करि गये देश।
सोना मिले न पिय मिले रूपा ह्वै गये केश॥
रूपा ह्वै गये केश रोय रँग रूप गँवावा।
सेजन को बिसराम पिया बिन कबहुँ न पावा॥
कह गिरिधर कविराय लोन बिन सबै अलोना।
बहुरि पिया घर आव कहा करिहीं है सोना॥७॥
जाकी धन धरती हरी ताहि न लीजै संग।
जो चाहै लेतो बनै तो करि डारु निपंग॥
तो करि डारु निपंग भूलि परतीत न कीजै।
सौ सौगन्दैं खाय चित्त में एक न दीजे॥
कह गिरिधर कविराय खटक जैहै नहिं ताकी।
अरि समान परिहरिय हरी धन धरती जाकी॥८॥
दौलत पाय न कीजिये सपने में अभिमान।
चञ्चल जल दिन चारिको ठाँउ न रहत निदान॥
ठाँउ न रहत निदान जियत जगमें यश लीजै।
मीठे बचन सुनाय बिनय सबही की कीजै॥