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गिरिधर कविराय
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की। कहा जाता है कि जिन कुंडलियों के प्रारंभ में "साँई" शब्द है ये सब गिरिधर की स्त्री की बनाई हुई हैं।

हम गिरिधर की कुछ कविता यहाँ उद्‌धृत करते हैं—

साईं बेटा बाप के बिगरे भयो अकाज।
हरनाकस्यप कंस को गयड दुहुन को राज॥
गयउ दुहुन को राज बाप बेटा में बिगरी।
दुस्मन दावागीर हँसै महि मण्डल नगरी॥
कह गिरिधर कविराय युगन याही चलि आई।
पिता पुत्र के बैर नफ़ा कहु कौने पाई॥१॥
बेटा बिगरे बाप सों करि तिरियन को नेहु।
लटापटी होने लगी मोंहि जुदा मोहिं जुदा देहु॥
मोहिं जुदा करि देहु घरीमा माया मेरी।
लेहौं घर अरु द्वार करौं मैं फजिहत तेरी॥
कह गिरिधर कविराय सुनों गदहा के लेटा।
समय परयो है आय बाप से झगरत बेटा॥२॥
साईं ऐसे पुत्र से बाँझ रहे बरु नारि।
बिगरी बेटे बाप से जाय रहै ससुरारी॥
जाय रहे ससुरारि नारि के नाम बिकाने।
कुल के धर्म नसाँय और परिवार नहाने॥
कह गिरिधर कविराय मातु झंखै वरु ठाईं।
असि पुत्रनि नहिं होय बाँझ रहतिउँ बरु साईं॥३॥
काची रोटी कुचकुची परती माछी बार।
फूहर वही सराहिये परसत टपकै लार॥
परसत टपकै लार झपटि लरिका सौंचावै।
प्यूतर पोंछे हाथ दोउ कर सिर खजुवावै॥