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सहजोबाई
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गुरु मक्ति थी। उनकी कविता बड़ी मधुर और बड़े मर्म की है। हम उनकी रचना के कुछ नमूने यहाँ उद्धृत करते हैं:—

निसचै यह मन डूबता मोह लोभ की धार।
चरनदास सतगुरु मिले सहजो लई उबार॥१॥
सहजो गुरु दीपक दियो नैना भये अनंत।
आदि अंत मध एक ही सूझ पड़ै भगवन्त॥२॥
जब चैतै जबही भला मोह नींद सूँ जाग।
साधू की संगत मिलै सहजो ऊँचे भाग॥३॥
दीर्घ बुद्धि जिनकी महा सील सदा ही नैन।
चैतनता हिरदै बसै सहजो सीतल बैन॥४॥
ना सुख दारा सुत्त महल ना सुख भूप भये।
साधु सुखी सहजो कहै तृश्ना रोग गये॥५॥
साधु वृक्ष बानी कली चर्चा फूले फूल।
सहजो संगत बाग में नाना फल रहे झूल॥६॥
बैठ बैठ बहुतक गये जग तरवर की छाँहिं।
सहज। बटाऊ बाट के मिल मिल बिछुड़तजाहिं॥७॥
अभिमानी नाहर बड़ो भरमत फिरत उजार।
सहजो नन्ही बाकरी प्यार करै संसार॥८॥
सीस, कान, मुख नासिका ऊँचे ऊँचे नाँव।
सहजो नीचे कारने सब कोउ पूजै पाँव॥९॥
भली गरीबी नवनता सकै न कोई मार।
सहजो रुई कपासकी काटै ना तरवार॥१०॥
प्रेम दिवाने जो भये पलट गयो सब रूप।
सहजो दृष्टि न आवई कहा रंक कह भूप॥११॥
मैं आखंड व्यापक सकल सहज रहा भरपूर।
ज्ञानी पावे निकटही मूरख जानै दूर॥१२॥