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कविता-कौमुदी
 

ताते न कीजिए गौन बलाइ ल्यों गौन करे यह सीस बिसैहै।
जानति हौ दृग ओट भये तिय प्रान उसासहि के सँग जैहै॥२॥

संपत्ति के बढ़े सो प्रतिष्ठा बाढ़ै बाढ़ै सोच कहै रघुनाथ
ताके राखिबे के रुख को। मन माँगे स्वादनि लपेटि पेट परयो
तासों अंग मैं अपार संग प्रगटो कलुष को। दारा सुत सखा
को सनेह सों संतापकारी भारी है वचन यह बड़न के मुख
को। जगत को जितनो प्रपंच तितनो है दुःख सुख इतनो जो
सुख मानि लेनो दुःख को॥३॥

देखिबे को दुति पूनो के चंद की हे रघुनाथ श्री राधिका रानी।
आई बुलाइ कै चौतरा ऊपर ठाढ़ी भई सुख सौरभ सानी॥
ऐसी गई मिलि जोन्हकीजोति में रूपकीरासि न जाति बखानी।
बार ते कछु भौंहन तें कछु नैनन की छवि तें पहिचानी॥४॥

ग्वाल संग जैबो ब्रज गायन चरैबो ऐबो अब कहा दाहिने
ये नैन फरकत हैं। मोतिन की माल वारि डारौं गुंज माल
पर कुंजन की सुधि आये हियो धरकत है॥ गोबर को गारो
"रघुनाथ" कछू याते भारो कहा भयो पहलन मनि मरकत
हैं। मंदिर हैं मंदर ते ऊँचे मेरे द्वारका के ब्रज के खरिक तऊ
हिये खरकत हैं॥५॥

सुधरे सिलाह राखै, बायु बेगी बाह राखै, रसद की राह
राखै राखै रहै वन को। चार को समाज राखै, बजा औ
नजर राखै, खबरि को काज बहुरूपी हरफन को। अगम
भखैया राखै, सकुन लेवैया राखै, कहै रघुनाथ औ बिचार बीच
मन को। बाजी राखै कबहूँ न औसर के परे जौन ताजी
राखै प्रजन को राजी सुभटन को॥६॥

फूलि उठे कमल से अमल हितू के नैन कहै रघुनाथ भरे
नैन रस सियरे। दौरि आये भौंर से करत गुमी गुन गान