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रघुनाथ
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फूत मजबूत बानी सुनि कै सुजान मानी सोई बात जानी
जासों उर मैं छमा रहै। जुद्ध रीति जानौ मत भारत को मानौ
जैसो होइ पुठबार ताते ऊन असमा रहै॥ बाम और दच्छिन
समान बलवान जान कहत पुरान लोक रीति मों रमा रहै।
सूदन समर घर दोउन की एकै विधि घर में जमा रहे तो
खातिर जमा रहै॥६॥


 

रघुनाथ

घुनाथ बंदीजन महाराज काशिराज बरिखंड सिंह के राजकवि थे। महाराज ने इन को काशी के समीप चौरा गाँव दिया था, उसी में ये सकुटुम्ब रहते थे।

इनके रचे हुये निम्नलिखित ग्रन्थ मिलते हैं:—काव्य कलाधर, रसिक मोहन और इश्क महोत्सव। काव्य कलाधर की रचना सं॰ १८०२ में हुई। ठाकुर शिवसिंह ने लिखा है कि इन्होंने सतसई की टीका भी बनाई है।

रघुनाथ ब्रजभाषा में कविता करते थे, परन्तु इश्क महोत्सव में इन्होंने आजकल की सी हिन्दी भाषा में कविता लिखी है।

इनकी कविता के कुछ नमूने नीचे दिये जाते हैं:—

देख हे देख या ग्वालिन की भग नेकु नहीं थिरता गहती है।
आनंद सों "रघुनाथ" पगी पगी रंगन सोँ फिरतै रहती है॥
छोर को छोर तरौना को छूवै कर ऐसी बड़ी छवि को लहती है।
जोबन आइबेकी महिमा अँखियाँ मनो कानन सों कहती हैं॥१॥
सुखति जाति सुनी जब सों कछु खाति न पीवति कैसे धौं रैहैं।
जाकी है ऐसी दसा अबहीं "रघुनाथ" सोऔधिअधारक्यों। पैहै॥

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