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कविता-कौमुदी
 

दक्खिनी पछेला करि खेला तैं अजब खेल हेला मारि गंग मैं
रुहेला मारे जंग मैं॥१॥

एकै एक सरस अनेक जे निहारे तन भारे लाज भारे
स्वामिकाज प्रतिपाल के। चंग लौं उड़ायो जिन दिली की
वजीरभीर मारी बहु भीरन किये हैं वे हवाल के। सिंह बदनेस
के सपुत श्री सुजान सिंह सिंह लौं झपटि नख दीन्हे करबाल
के। वेई पठनेटे सेल साँगन खखेटे भूरि धूरि सौं लपेटे लेटे
भेटे महाकाल के॥२॥

बंगस के लाज मऊखेत की अवाज यह सुने ब्रजराज तें
पटान वीर बबके। भाई अहमदखान सरन निदान जानि
आयो मनसूर तौ रहें न अब दबके। चलना मुझे तौ उठ
खड़ा होना देर क्या है? बार बार कहे ते दराज सीने सब
के। चंड भुज दंडवारे हयन उदंडवारे कारे कारे डीलन
संवारे होत रब के॥३॥

महल सराय से रवाने बुआ बूबू करो, मुझे अफसोस बड़ा
बड़ी बीबी जानी का। आलम में मालुम चकत्ता का घराना
यारो जिसका हवाल हैं तनैया जैसा तानी का। खने खाने
बीच से अमाने लोग जाने लगे आफत ही जानो हुआ औज
दहकानी का। रब की रजा है हमें सहना बजा हैं वक्त हिन्दू
का गजा है आया छोर तुरकानी का॥४॥

आप बिस चाखै भैया षटमुख राखै देखि आसन में राखै
बस बास जाको अचलै। भूतन कै छैया आस पास के रखैया
और काली के नथैया हूँ के ध्यान हूँ ते न चलै। बैल बाघ
बाहन बसन को गयंद खाल भाँग को धतूरे को पसारि देत
आँचलै। घर को हवाल यहै संकर की बाल कहै लाज रहै कैसे
पूत मोदक को मचलै॥५॥