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कविता-कौमुदी
 

 

रसनिधि

सनिधि का असली नाम पृथ्वीसिंह था। ये दतिया राज्य के अन्तर्गत जागीरदार थे। इनके जन्म मरण का ठीक समय निश्चित नहीं हैं; परन्तु सं॰ १७६० में इनका होना माना जाता है।

इनका रचा हुआ रतनहजारा अद्भुत ग्रन्थ है। हजारा में कुल दोहे ही दोहे हैं। भावों को झलकाने में इन्होंने बड़ी बारीक बुद्धि से काम लिया है। इनके दोहे बिहारी के दोहों से टक्कर लेते हैं। नीचे इनके कुछ दोहे लिखे जाते हैं। देखिये कैसे लुभावने हैं:—

रसनिध वाकों कहत हैं याही तैं करतार।
रहत निरन्तर जगत कौ याही के कर तार॥१॥
आये इसक लपेट में लागी चसम चपेट।
सोई आया जगत में और भरें सब पेट॥२॥
सज्जन पास न कहुँ अरे ये अनसमझी बात।
मोम रदन कहुँ लोह के चना चबाये जात॥३॥
हित करियत यहि भाँति सों मिलियत है वहि भाँत।
छीर नीर तैं पूँछ लै हित करिबे को बात॥४॥
पसु पच्छीहू जानहीं अपनी अपनी पीर।
तब सुजान जानौ तुम्हैं जब जानौ पर पीर॥५॥
रूप नगर बस मदन तृप दृग जासूस लगाइ‌।
नेहिन मन कौ भेद उन लीनौ तुरंत मँगाइ॥६॥
सुन्दर जोबन जो बसुधा में न समाइ।
दृग तारन तिल बिच तिन्हैं नेही धरत लुकाइ॥७॥