सिला सिला प्रति चन्द चमकि किरननि छबिछाई।
बिच बिच अम्ब कदम्ब झम्ब झुकि पायनि आई॥
ठौर ठौर चहुँ फेर ढेर फूलन के सोहत।
करत सुगन्धित पवन सहज मन मोहत जोहत॥
बिमल नीर निर्झरत कहूँ झरना सुख करना।
महा सुगन्धित सहज बास कुमकुम मद हरना॥
कहुँ कहुँ हीरन खचित रचित मंडल सुरासिके।
जटित नगन कहुँ जुगल खम्भ झूलनि बिलासिके॥
ठौर ठौर लखि ठौर रहत मनमथ सो भारी।
बिहरत विविध विहार तहाँ गिरि पर गिरधारी॥
महाराजा नागरीदास की दासी बनीठनी जो भी कविता करती थीं और कविता में अपना नाम रसिकबिहारी रखती थीं। ये सदा नागरीदास जी की सेवा में रहती थीं। इनका देहान्त सं॰ १८२२ में हुआ। इनके बनाये कुछ पद नीचे लिखे जाते हैं:—
१
रतनारी हो थारी आँखड़ियाँ।
प्रेम छकी रस बस अलसाणी जाणि कमल की पाँखड़ियाँ।
सुन्दर रूप लुभाई गति मति हौं भई ज्यूँ मधु माँखड़ियाँ॥
२
हो झालो दे छे रसिया नागर पनाँ।
साराँ देखा लाज मराँ छाँ आवाँ किण जतनाँ।
छैल अनोखा कियो न मानै लोभी रूप सनाँ॥
रसीकबिहारी नणद बुरी छै हो लाग्यो म्हारो मनाँ॥