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वृन्द
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मूरख गुन समझै नहीं तौ न गुनी में चूक।
कहा घट्यो दिन को विभौ देखै जौ न उलूक॥३७॥
करै बुराई सुख चहै कैसे पावै कोइ।
रोपै बिरवा आक को आम कहाँ ते होइ॥३८॥
बहुत निबल मिलवलकरैं करैं जु चाहैं सोय।
तिनकन की रसरी करी करी निबन्धन होय॥३९॥
साँच झूँठ निर्णय करै नीति निपुण जो होय।
राजहंस बिन को करै क्षीर नीर को दोय॥४०॥
दोषहिं को उमहै गहै गुण न गहै खललोक।
पियै रुधिर पय ना पियै लागि पयोधरजोंक॥४१॥
कारज धीरे होतु है काहे होत अधीर।
समय पाय तरुवर फलै केतक सींचो नीर॥४२॥
क्यों कीजै ऐसो जतन जाते काज न होय।
परबत पर खोदै कुँआ कैसे निकसै तोय॥४३॥
वीर पराक्रम ना करे तासों डरत न कोइ।
बालकहू को चित्र को बाघ खिलौना हाइ॥४४॥
उत्तम जनसोँ मिलत ही अवगुण से गुण होय।
घनसँग खारो उ‌द्धि मिलि बरसै मीठो तोय॥४५॥
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात तेँ सिलपरपरतनिसान॥४६॥
भली करत लागति बिलम बिलम न बुरे विचार।
भवन बनावत दिन लगै ढाहत लगत न बार॥४७॥
कुल सपूत जान्यौ परै लखि शुभ लक्षण गात।
होनहार बिरवान के होत चीकने पात॥४८॥
छोटे मन में आय हैं कैसे मोटी बात।
छेरी के मुँह में दियौ ज्यौँ पेठा न समात॥४९॥

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