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कविता-कौमुदी
 

हितहू की कहियै न तिहि जो नर होय अबोध।
ज्यों नकटे को आरसी होत दिखाये क्रोध॥२४॥
सबै सहायक सबलके कोउ न निबल सहाय।
पवन जगावत आग को दीपहिं देत बुझाय॥२५॥
कछु बसाय नहिंसबलसों करै निबल पर जोर।
चले त अचल उखार तरु डारत पवन झकोर॥२६॥
रोष मिटे कैसे कहत रिस उपजावन बात।
ईंधन डारे आगमों कैसे आग बुझात॥२७॥
जो जेहि भावे सो भलौ गुन को कछु न विचार।
तज गज मुकता भीलनी पहिरति गुंजा हार॥२८॥
दुष्ट न छाँड़े दुष्टता कैसे हूँ सुख देत।
धोये हूँ सौ बेरके काजर होत न सेत॥२९॥
कहुँ अवगुणसोइहोतगुण कहुँ गुण अवगुण होत।
कुच कठोर त्यों है भले कोमल बुरे उदोत॥३०॥
जाको जैसो उचित तिहिं करिये सोइ विचारि।
गीदर कैसे ल्याइ है गज मुक्ता गज मारि॥३१॥
जैसे बंधन प्रेम को तैसो बंध न और।
काठहि भेदै कमल को छेद न निकरै भौर॥३२॥
जे चेतन तें क्यों तजैं जाको जासों मोह।
चुंबक के पीछे लग्यो फिरत अचेतन लोह॥३३॥
जो पावै अति उच्च पद ताकौ पतन निदान।
ज्यौं तपि तपि मध्याह्नलौं अस्त होतु हैं भान॥३४॥
जिहि प्रसंग दूषन लगे तजिये ताको साथ।
मदिरा मानत है जगत दूध कलाली हाथ॥३५॥
जाके सँग दूषण दुरै करिये तिहि पहिचानि।
जैसे समझे दूध सब सुरा अहीरी पानि॥३६॥