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कविता-कौमुदी
 

 

वृन्द

वृन्द का जन्म सं॰ १७४२ के लगभग हुआ। इन्होंने वृन्द सतसई नाम से सात सौ नीति के दोहों का एक अपूर्व ग्रन्थ लिखा है। उनमें से कुछ दोहे यहाँ लिखे जाते हैं।

नीकी पै फीकी लगै बिन अबसर की बात।
जैसे बरनत युद्ध में रस शृंगार न सुहात॥१॥
फीकी पै नीकी लगै कहिये समय बिचारि।
सब को मन हर्षित करै ज्यौं विवाह में गारि॥२॥
जो जाको गुन जानही सो तिहि आदर देत।
कोकिल अंबहि देत है काग निबौरी हेत॥३॥
जाही ते कछु पाइये करिये ताकी आस।
रीते सरवर पै गये कैसे बुझत पियास॥४॥
गुनहो तऊ मँगाइये जो जीवन सुख भौन।
आग जरावत नगर तऊ आग न आनत कौन॥५॥
रसअनरस समझे न कछु पढ़ैं प्रेम की गाथ।
बीछू मन्त्र न जानहीं साँप पिटारे हाथ॥६॥
कैसे निवहै निबल जनकर सबलन सों गैर।
जैसे बस सागर विषे करत मगर सो वैर॥७॥
दीबो अवसर को भलो जासों सुधरै काम।
खेती सूखे बरसिवो धन को कौने काम॥८॥
अपनी पहुँच विचारि कै करतब करिये दौर।
तेते पाँव पसारिये जेती लंबी सौर॥९॥
पिसुनछल्यो तर सुजनसों करत बिसास न चूकि।
जैसे दाध्यो दूध को पीवत छाँछहि फूँकि ॥१०॥