पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/३२२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
श्रीपति
२३७
 

सोबत जानि निवाज पिया करलों कर दै निज ओर करीटत।
नीबी बिमोचत चौंकिपरी मृगछीना्सीचालबिछौनापैलोटत॥२॥

पारथ समान कीन्हों भारथ मही मैं आनि बाँधि सिर
बाना ठान्यो सरम सपूती को। कोर कोर करि गयो हटि
कै न पग दयो लयो रन जीति किरवान करतूती को॥ भनत
"नेवाज" दिल्लीपति सों सहादत खाँ करत बखान एती भान
मजबूती को। कतल मरद्द नद्द सोनित सों भरि गयौ करि
गयो हद्द भगवन्त रजपूती को॥३॥
आगे तौ कीन्हीं लगालगी लोयन कैसे छिपे अजहूँ जौ छिपावति।
तू अनुराग कौ सोध कियो ब्रज की बनिता सबयों ठहरावति॥
कौन सकोच रह्यो है "नवोज" जौ तू तरसै उनहूँ तरसावति।
बावरी जो पै कलङ्क लग्योतौनिसङ्कह्वै क्योंनहिँ अंकलगावति॥४॥


 

श्रीपति

श्रीपति कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनका निवास स्थान काल्पी था। इन्होंने सं॰ १७७७ में श्री काव्य सरोज नामक ग्रन्थ बनाया। ये अच्छे कवि थे। इनकी कविता के कुछ नमूने नीचे दिये आते हैं:—

उर्द के पचाइबे को हींग अरु सोंठ जैसे केरा के पचाइबे को
घिव निरधार है। गोरस पचाइबे को सरसों प्रबल दण्ड आम
के पचाइबे को नीबू को अचार है। श्रीपति कहत पर धन के
पचाइबे को कानन छुआय हाथ कहियो नकार है। आज के
जमाने बीच राजा राव जाने सबै रीझि के पचाइबे को बाहवा
डकार है॥१॥