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कविता-कौमुदी
 

 

नेवाज

नेवाज नाम के दो तीन कवि पाये जाते हैं। एक नेवाज महाराज छत्रसाल बुंदेला के यहाँ थे। ये जाति के ब्राह्मण थे। दूसरे नेवाज विलग्राम के जुलाहे थे। तीसरे नेवाज शिष सिंह के कथनानुसार गाजीपुर के भगवंतराय खींची के यहाँ थे। दूसरे और तीसरे नेवाज साधारण कवि थे। अतएव हम यहाँ प्रथम नेवाज की ही चर्चा करते हैं।

ठाकुर शिवसिंह ने इनका जन्म सं॰ १७३९ माना है। और जन्मस्थान अंतर्वेद बतलाया है। ये छत्रसाल के समय में थे, इसके प्रमाण में ठाकुर साहब ने एक दोहा लिखा है:—

तुम्हें न ऐसो चाहिये छत्रसाल महराज।
जहँ भगवत गीता पढ़ी तहँ कवि पढ़त नेवाज॥

यह दोहा, मालूम होता है भगवत के स्थान पर नेवाज के नियत होजाने पर, बना था।

नेबाज ब्राह्मण थे। शकुन्तला नाटक के सिवा इनका रचा हुआ कोई ग्रंथ नहीं मिलता। कहीँ कहीँ पुस्तकों में इनके फुटकर छंद मिलते हैं। नेवाज बड़े रसिक कवि थे। कहीँ कहीँ भावों में इन्होंने बड़ी अश्लीलता भर दी है। इनके कुछ छंद नीचे लिखे जाते हैं:—

देखि हमैं सब आपुस में जो कछू मन भावै सोई कहती हैं।
ए घरहाई लोगाई सबै निसि द्योस नेवाज हमैं दहती हैं।
बातें चबाव भरी सुनि कै रिसि आवत पै चुप ह्वै रहती हैं।
कान्ह पियारे तिहारे लिये सिगरे ब्रज को हँसियो सहती हैं॥१॥
पीठि दै पौड़ि दुराय कपोल को मानै न कोटि पिया उत्त पोढ़त।
बाँहन बीच हिए कुच दोऊ गधे रसना मनहीं मन सोचत॥