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कविता-कौमुदी
 

बरुनी बघम्बर मैं गूदरी पलक दोऊ कोये राते बसन भगो
हैं भेख रखियाँ। बूड़ी जलही में दिन जामिनि रहति भौंहैं धूम
शिर छायो बिरहानल बिलखियाँ। आँसू ज्योँ फटिक माल
लाल डोरे सेल्ही सजि भई हैं अकेली तजि चेली संग सखियाँ।
दीजिये दरश देव लीजिये सँजोगिन कै जोगिन ह्वै बैठी वा
वियोगिन की अँखिया॥८॥

सखी के सकोच गुरु सोच मृग लोचनि रिसानी पियसों
जु उन नेकु हँसि छुयो गात। देव वै सुभाय मुसुकाय उठि
गये यहिँ सिसिकि सिसिकि निसि खोई रोय पायो प्रात।
को जानै रा बीर बिनु बिरही विरह बिथा हाय हाय करि पछिताय
न कहू सोहात। बड़े बढ़े नैनन सो आँसू भरि भरि ढरि गोरो
गोरो मुख आजु ओरी सो विलानो जात॥६॥

कोई कहौ कुलटा कुलीन अकुलीन कहौ कोई कहौ रंकिनी
कलंकिनी कुनारी हौ। कैसे यह लोक नर लोक बर लोकनि
मैं लीन्हीं मैं अलोक लोक लोकनि त न्यारी होँ। तन
जाउ मन जाउ देव गुरुजन जाउ जीव किन जाउ टेक टरति
न टारी हौँ। वृन्दावन वारी बनवारी की मुकुट वारी पीत
पट वारी वहि मूरति पै वारी हाँ॥१०॥

जब तें कुँवर कान्ह रावरी कला निधान कान परी वाके
कहूँ सुजस कहानी सी। तब ही ते देव देखी देवता सी
हँसति सी रीझतिसी खीझतिसी रूठति रिसानी सी। छोही
सी छली सी छीन लीनी सी छकी छिन सी जकी सी टकी सी
लगी थकी थहरानी सी। बांध सी बंधी सी विष बूड़ति
बिमोहित सी बैठी बाल बकति बिलोकति बिकानी सी॥११॥

बालम बिरह जिन जान्यो न जनम भरि बरि बरि उठे ज्योँ
ज्योँ बरसै बरफ राति। बीजनौं दुरावती सखी जन त्योँ सीतहूँ