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कविता-कौमुदी
 

लोका-हित-साधन की चर्चा ये बहुत कम कर सके। इसी कारण से इनकी पुस्तकों का आदर और प्रचार भी हिन्दू समाज में कम हुआ। जीवन के अंत समय में इन्होंने वैराग्य पर भी कुछ कविताएँ लिखीं। परन्तु वे इंद्रिय शैथिल्य के कारण लिखी गईं जान पड़ती हैं, समाजहित की स्वाभाविक कामना से नहीं। देव की जीवनी का निचोड़ हमें यही जान पड़ता है कि ये विषयी और शृंगारी कवि थे, परन्तु थे सूक्ष्मदर्शी। इनको गाने बजाने का भी बड़ा शौक था। इनका मरण काल सं॰ १८०२ के लगभग अनुमान किया जाता है। नमूने के तौर पर इनके कुछ छंद यहाँ लिखे जाते हैं:—

कुल को सो करनी कुलीन की सी कोमलता सील की
सी संपति सुसील कुल कामिनी। दान को सो आदर उदार-
ताई सूर की सी गुन की लुनाई गज गति गजगामिनी॥
ग्रीषम को सलिल सिसिर कैसो घाम देव हेमँत हँसत जलदा-
गम की दामिनी। पूनो को सो चन्द्रमा प्रभात को सो सूरज
सरद को सो बासुर बसंत की सी जामिनी॥१॥

सूरज मुखी सों चंद्रमुखी को बिराजै मुख कंदकली दंत
नाशा किंशुक सुधारी सी। मधुप से लोयन मधूक दल ऐसे
ओंठ श्रीफल से कुच कच बेलि तिमिरारी सी। मोती बेल कैसे
फूली मोतिन मैं भूषण सुचीर गुल चाँदनी सों चंपक की डारी
सी। केलि के महल फूलि रही फुलवारी "देव" ताही में
उज्यारी प्यारी फूली फुलवारी सी॥२॥

डार द्रुम पालन बिछौना नव पल्लव के सुमन झँगूला सोहै
तन छवि भारी दै। पवन झुलावैं केकी कीर बतरावें "देव"
कोकिल हलावै हुलसावैं करतारी दै। पूरित पराग सों उतार
करै राई नोन कंज कली नाइका लतानि सिर सारी दै। मदन