ही फिरत हैं। अंगना अधीन काम क्रोध में प्रवीन एक ज्ञान
के विहीन छीन कैसे के तरत हैं॥२॥
धन्न जियो तिहँ को जग में मुख तें हरि चित्त में युद्ध बिचारैं।
देह अनित्त न नित्त रहें जसु नाव चढ़े भवसागर तारैं॥
धीरज धाम बनाइ रहै तन बुद्धि सु दीपक ज्यों उजियारैं।
ज्ञानहिं की बढ़ती मनो हाथ लै कायरता कतवार बुहारें॥३॥
का भयो जो सबही जगजीत सु लोगन को बहु त्रास दिखायो।
और कहा जु पै देस बिदेसन माँहि भले गज गाहि बंधायो॥
जो मन जीतत है सब देख वहै तुमरे नृप हाथ न आयो।
लाज गई कछु काज सरयों नहिं लोकगयो परलोक गमायो॥४॥
घनआनन्द
घन आनन्द जाति के कायस्थ थे, और दिल्ली में रहते थे। सं॰ १७९६ में जब नादिरशाह ने मथुरा को जीता, ये उसी समय मारे गये। इनके जन्म संवत् का ठीक ठीक पता नहीं। इनके रचे हुये निम्नलिखित ग्रंथ खोज में मिले हैं:—
सुजान सागर, कोकसार, घनानन्द कवित्त, रस केलि बल्ली, कृपाकाण्ड निबंध।
इनकी कविता में प्रेम और विरह का वर्णन बड़ा मनोहर हुआ है। भक्ति रस की कविता भी इन्होंने अच्छी की है। इनकी कुछ कविताओं का संग्रह भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने "सुजान-शतक" नाम से किया है। उसमें सौ से अधिक सवैया कवित्त छप्पय और दोहे हैं।
घनआनंद की कविता के कुछ नमूने हम यहाँ लिखते हैं—