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कविता-कौमुदी
 

चंद की जुन्हैया चारु लोचन चफोरन की प्यासन निवारिदे।
मेरे कर मेहँदी लगी है नंदलाल प्यारे लट उरझी है नकवेसर
सँभारि दे॥२॥

प्रथम समागम के औसर नबेली बाल सकल कलानि पिय
प्यार को रिझायो है। देखि चतुराई मन सोच भयो प्रीतम के
लखि परनारि मन संभ्रम भुलायो है। कालिदास ताही समै
निपट प्रबीन दिया काजर लै भीतिहूँ मैं चित्रक बनायो है।
ब्यात लिखी सिहिनी निकट गजराज लिख्यो योनि ते निकसि
छीना मस्तक पै आयो है॥३॥


 


आलम और शेख

ठाकुर शिवसिंह ने आलम को सनाठ्य ब्राह्मण लिखा है, और इनका जन्म-संवत् १७१२ बतलाया है। ये औरङ्गजेब के समय में थे, और औरङ्गजेब के पुत्र शाहज़ादा मुअज्जम के पास रहा करते थे।

एक बार आलम मे शेख नामक रँगरेजिन को अपनी पगड़ी रँगने को दी। भूल से एक काग़ज़ का टुकड़ा, जिसमें आलम ने आधा दोहा लिखकर फिर किसी समय उसे पूरा करने के लिये बाँध दिया था, बँधा ही रह गया। पगड़ी घोते समय शेख ने उस काग़ज़ के टुकड़े को खोलकर पढ़ा। उसमें यह लिखा था—

"कनक छरी सी कामिनी, काहे को कटि छीन"

शेखा ने उसके नीचे "कटि को कंचन काटि विधि, कुचन मध्यघरि दीन" लिखकर, पगड़ी धोकर उसी में बाँध दिया। जब आलम को वह पगड़ी मिली और उन्होंने दोहे की पूर्त्ति हुई