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कविता-कौमुदी
 

क्रोधित होई चहूँ दिशि धाये मारि सबै सेना बिवलायै
यहि बिधि किये भयानक भारत साहस धन्य धन्य पुरुषारथ
ऐसी मारु खम्भ सों कीन्हे दश सहस्र राजा बध लीन्हे
मारि सबै राजा बिचलाये करलै गदा कुरूपति धाये
शत बान्धव नृप संगहि आये अरु अनेक राजा मिलि धाये
चहुँ दिशि महारथी सब घेरे क्षत्री सबै वीर बहुतेरे
नाना अस्त्र सबहिं परिहारे निकट न जाहिँ दूरि ते मारे
दुर्योधन कहँ देखन पाये गहे खम्भ अभिमनु तब धाये
जुरे वीर क्षत्री बहुतेरे खम्भ घावते बधेउ घनेरे
जब नरेश के निकटहिं आये द्रोण गुरू दश वाण चलाये

गुरू द्रोण अति क्रोध कै मारे वाण अचूक।
कुँवर हाथ को खम्भ तब काटि कियो दो टूक॥

खम्भ कटे अभिमनु ने कैसे मणिबिनुफणिक विकलजगजैसे
क्रोधित भये सहोद्रा नंदन चरण घात कै तोरेउ स्पंदन
रथते कूदि कुँवर कर लीन्हे चका उठाय रणहिं शुभ कीन्हें
चका कुँवर कर शोभित कैसे हरि कर चक्र सुदर्शन जैसे
रुधिर प्रवाह चलत सब अंगा महा शूर मन नेकु न भंगा
गहि कै चका चहुँ दिशि धावै जेहि पावै तेहि मारि गिरावै
दुर्योधन पर चका चलाये गदा रोपि कुरुनाथ बचाये
छत्री घेरि लगे शर मारन जुरे आइ केते हथियारन
दुस्सासन सुत गदा प्रहारे अभिमनु के शिर ऊपर मारे
जूछे कुँवर परे तब धरणी जग महँ रही सदा यह करणी

धन्य धन्य सब कोउ कहै कुँवर रहौ मैदान।
पै गुरु द्रोण मलीन मुख कहें बचन परिमान॥