बेनी
बेनी नाम के दो तीन कवि हो गये हैं। एक बेनी असनी के बन्दीजन थे। उनका समय स॰ १६९० के आप पास कहा जाता है। वे दिल्लगी की कविताएँ बनाने में बड़े निपुण थे। दूसरे बेनी जि॰ रायबरेली में बेंती गाँव के बन्दीजन थे। शिवसिंह सरोज में उनका समय सं॰ १८४४ लिखा है। और तीसरे बेनी लखनऊ के बाजपेयी थे। उनका समय शिवसिंह सरोज में सं॰ १८७६ लिखा है। तीसरे बेनी कविता में अपना नाम "बेनी प्रवीन" रखते थे। दिल्लगी की कविताएँ प्रायः सब असनी वाले बेनी की बनाई हुई हैं। पहले और दूसरे बेनी की बहुत सी कविताओं में यह निर्णय करना कठिन है कि कौन किसकी बनाई हुई हैं। तीसरे बेनी की कविता "बेनी प्रवीन" नाम से सहज में ही पहचानी जा सकती है। यहाँ हम पहले और दूसरे बेनी की कुछ कविताएँ उद्धृत करते हैं:—
कारीगर कोऊ करामात कै बनाय लायो लोनी दाम थोरो
जान नई सुघरई है॥ रायजू को रायजू रजाई दीनी राजी
ह्वै के सहर में ठौर ठौर सोहरत भई है॥ बेनी कवि पाय के
अघाय रहे धरी द्वैक कहत न बने कछु ऐसी मति ठई है॥
साँस लेत उड़िगो उपल्ला और भितल्ला सबै दिन द्वै के बाती
हेत रुई रह गई है॥१॥
आध पाव तेल में तयारी भई रोशनी की आध पाव रूई
में पोशाक भई वर की॥ आध पाव छाले को गिनौराँ दियो
भाइन को माँगि माँगिलायों है पराई बीज घरकी॥ आधी आधी
जरि बेनी कवि की विदाई कीनी व्याहि आयो जयते न