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कविता-कौमुदी
 

एक संग छूट्यो सुख रुचि मुख रुचि त्योंही बिन
रंग ही। भूषन बखानै सिवराज मरदाने तेरी धाक
बिललाने न गहत बल अंगही। दक्खिन के सूबा पाय दिल्ली
के अमीर तजैं उत्तर की आस जीव आस एक संगही॥७॥

बचैगा न समुहाने बहलोल खाँ अयाने भूषन बखाने दिल
आनि मेरा वरजा। तुझते सवाई तेरा भाई सलहेरि पास कैद
किया साथ का न कोई वीर गरजा॥ साहिन के साहि उसी
औरँग के लीन्हें गढ़ जिसका तू चाकर औ जिसकी तू परजा।
साहि का ललत दिली दल का दलन अफजल का मलन सिव-
राज आया सरजा॥८॥

पूरब के उत्तर के प्रबल पछाह हूँ के सब बादशाहन के
गढ़ कोट हरते। भूषन कहै यों अवरंग सो वजीर, जोति लीबे
को पुरतगाल सागर उतरते। सरजा सिवा पर पठावत
मुहीम काज हजरत हम मरिबे को नाहिँ डरते। चाकर हैं
उजुर कियो न जाइ नेक पै कछू दिन उबरते तो घने काज
करते॥९॥

बैर कियो सिव चाहत हो तबलों अरि बाह्यो कटार कठैठो।
योहीं मलिच्छहिँ छाँड़ें नहीं सरजा मन तापर रोस में पैठो॥
भूषन क्यों अफजल्ल बचै अठपाव कै सिंह को पाँव उमेठो।
बीछू के घाय धुक्योई धरक्क ह्वै तौ लगधाय धराधर बैठो॥१०॥

बिना चतुरंग संग बानरन लै कै बाँधि वारिधि को लङक
रघुनन्दन जराई है। पारथ अकेले द्रोन भीषम सों लाख भट
जीत लीन्ही नगरी विराट में बड़ाई है॥ भूषन भनत ह्वै गुस-
लखाने में खुमान अवरंग साहिबी हथ्याय हरि लाई है। तौ
कहा अचंभो महाराज सिवराज सदा वीरन के हिम्मतै हथ्यार
होत आई है॥११॥