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कविता-कौमुदी
 

चिबुक कूप में मन परयो छवि जल तृषा विचारि।
कढ़त मुबारक ताहि तिय अलक डोर सी डारि॥५॥

तिल वर्णन

सब जग पेरत तिलन को थक्यो चित्त यह हेरि।
तब कपोल को एक तिल सब जग डालो पेरि॥१॥
चिबुक कूप रसरी अलक सु चरस दूग बैल।
बारी बैस शृंगार की तिल सींचत मनमथ छैल॥२॥
मन जोगी आसन कियो चिबुक गुफा में जाय।
रह्यो समाधि लगाय कै तिल सिल द्वारे लाय॥३॥
चिबुक सरूप समुद्र में मन जान्यो तिल नाव।
तरन गयो बूड़्यो तहाँ रूप कहर दरियाव॥४॥
गोरी के मुख एक तिल सो मोहिं खरो सुहाय।
मानहुँ पंकज की कली भौंर विलंब्यों आय॥५॥


 

हरिनाथ

रिनाथ नरहरि के पुत्र थे। शाहजहाँ बादशाह की इन पर बड़ी कृपा रहती थी। शाहजहाँ के सिवाय अन्य राजा महाराजाओं के यहाँ भी इनका अच्छा मान था, और इनको विदाई में घोड़े, हाथी, रथ, पालकी और गाँव आदि मिलते थे।

एक बार आमेर के राजा सवाई मानसिह की प्रशंसा में इन्होंने नीचे लिखे दोहे पढ़कर एक लाख रुपया दान पाया—