पृथ्वीराज बड़े रसझ कषि थे। उनकी पहली रानी लालादे भी कविता करती थी। ऐसी रसमयी रमणी के साथ कवि पृथ्वीराज का दिन बड़े चैन से कटता था। परन्तु दुर्भाग्य से लालादे का भरी जवानी में स्वर्गवास हो गया। जब उसकी देह चिता पर जल रही थी तब पृथ्वीराज ने कहा:—
तो राँध्यों नहिं खावस्याँ रे! बासदे निसड्ड।
ओ देखत तू बालिया लाल रहंदा हड्ड॥
अर्थात्, ऐ आग! मैं तेरा राँधा हुआ कोई पदार्थ नहीं खाऊँगा। तूने मेरे देखते ही लालादे को जला दिया। और उसका हाड़ ही शेष रहा।
उस दिन से वे आग की पकी हुई कोई चीज नहीं खाते थे। जब वे बहुत दुर्बल हो गये, तब लोगों ने समझा कर उनका विवाह जैसलमेर के राव लहरराज की बेटी चम्पादे से कराया। चम्पादे बड़ी ही सुन्दरी और प्रसन्न मुख थी। लालादे से भी वह गुण और रूप में बढ़ कर थी। पृथ्वीराज उसको बहुत प्यार करते थे। पति की संगति से चम्पादे ने भी कविता करनी सीख ली थी
एक दिन पृथ्वीराज बालों में कंघी कर रहे थे। चम्पादे उनके पीछे खड़ी थी। पृथ्वीराज ने दाढ़ी में से एक सफ़ेद बाल निकाल कर फेंक दिया। तब चम्पादे मुँह फेर कर हँसने लगी। पृथ्वीराजने दर्पण में उसकी परछाई देखकर पीछे देखा और फिर लज्जित होकर कहा—
पीथल धोला आवियाँ बहुली लागी खोड़।
पूरे जोबन पदमणी ऊभी मूँह मरोड़॥
पीथल पली टमुक्कियाँ बहुली लग गई खोड़।
स्वामीनी हाँसा करे ताली दे मुख मोड़॥