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कविता-कौमुदी
 

१९

पाँइ परै मनुहार करै पलका पर पाँइ धरै भय भीने।
सोह गई कहि केशव कैसहूँ कोर करोरहूँ सौंहन कोने॥
साहस कै मुख सों मुख द्वै छिन में हरिमान महा सुख लीनें।
एक उसाँसही के उससे सिगरेई सुगन्ध बिदा करि दीनें॥

२०

प्रथम सकल शुचि मञ्जन अमल वास, जावक सुदेश केश
पाश को सम्हारिवो। अङ्गराग भूषण विविध मुख वास राग,
कज्जल कलित लोल लोचन निहारिबो॥ बोलनि हँसनि मृदु
चलनि चितौनि चारू, पल पल प्रति पतिव्रत परि पारिबो।
केशव दास सो बिलास करहु कुँवरि राधे, इहि बिधि सोरह
शृंगारनि शृंगारिबो॥

२१

भाव जहाँ व्यभिचारी वे पै रमै पर नारी, द्विजैगन दंड
धारी चोरी पर पीर की। मानिनीनहीं के मन मानियत मान
भंग, सिन्धुहिं उलाँघि जाति कीरति शरीर की॥ भूलै तो
अधोगति न पावत है केशव दास, मीचही सोँ है वियोग इच्छा
गंग नीर की॥ बन्ध्या बासनानि जानु विधिना सो बाटि-
निकी, ऐसी रीति राजनीति राजै रघुबीर की॥

२२

कवि कुल ही के श्रीफलन उर अभिलाष समाज।
तिथिहीं को छय होत हैं रामचन्द्र के राज॥

२३

लूटिबे के नाते पाप पट्टनै तौ लूटियन, तारिबे को मोह तरु
तोरि डारियतु है। घालिबे के नाते गर्ब घालियत देवन के,
जारिबे के नाते अघ ओघ जारियतु है॥ बाँधिबे के नाते ताल