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कविता-कौमुदी
 

जल मदमातल हथिया हुमकत जाति।
चितवति जात तरुनियाँ मन मुसुकाति॥९॥
खीन मलिन विषभैया औगुन तीन।
मोहिं कहत बिधुबदनी पिय मतिहीन॥१०॥
ते अब जासि बेइलिया बरु जरि मूल।
बिन पिय सुल करेजवा लखि तुव फूल॥११॥
का तुम जुगल तिरियवा झगरत आय।
पिया बिन मनहुँ अटरिया मुहिं न सुहाय॥१२॥
कासों कहीं सँदेसवा पिया परदेसु।
लगेहु चहत नहिं फूले तेहि बन टेसु॥१३॥
पिय आवत अँगनैया उठि कै लीन।
साथे चतुरु तिरियवा बैठक दीन॥१४॥
कठिन नींद भिनुसरवा आलस पार।
धन दै मूरख मितवा रहल लोभाय॥१५॥
सुभग बिछाइ पलंगिया अंग सिंगार।
चितवति चौंकि तरुनियाँ दै दूग द्वार॥१६॥
बन घन फूलहि टेसुआ बगियनि बेलि।
चले विदेश पियरचा फगुआ खेलि॥१७॥
पीतम इक सुमिरिनियाँ मुहि देश जाहु।
जेहि जपि तार बिरहवा करब निबाहु॥१८॥
लखि अपराध पियरवा नहिं रिस कीन।
बिहँसत चंदन चउकिया बैठक दीन॥१९॥
करत न हिय अपरधवा सपनेहु पीय।
मान करन को बिरियाँ रहिगो हीय॥२०॥
लै कर सुघर खुरुपिया पिय के साथ।
छइबे एक छतरिया बरसत पाय।।२१।।