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कविता-कौमुदी
 

रहिमन मनहि लगाय के देखि लेहु किन कोय।
नर को बस करिबो कहा नारायन बस होय॥८४॥
रहिमन अँसुवा नयन ढरि जिय दुख प्रगट करेइ।
जाहि निकारो गेह ते कस न भेद कहि देइ॥८५॥
गुन ते लेत रहीम जन सलिल कूप तें काढ़ि।
कूपहुँ तें कहुँ होत है मन काहू को बाढ़ि॥८६॥
रहिमन मन महराज के दृग सो नहीँ दिवान।
जाहि देखि रीझे नयन मन तेहि हाथ बिकान॥८७॥
बिरह रूप घन तम भयो अवधि आस उद्योत।
ज्यों रहीम भादों निशा चमकि जात खद्योत॥८८॥
रहिमन लाख भली करौ अगुनी अगुन न जाय।
राग सुनत पथ पियत हूँ साँप सहज धरि खाय॥८९॥
जैसी परै सो सहि रहै कहि रहीम यह देह।
धरती ही पर परत सब शीत घाम औ मेह॥९०॥
शीत हरत तम हरत नित भुवन भरत नहिं चूक।
रहिमन तेहि रवि को कहा जो घटि लखै उलूक॥९१॥
नहि रहीम कुछ रूप गुण नहि मृगया अनुराग।
देशी श्वान जो राखिए भ्रमत भूखही लाग॥९२॥
कागज को सो पूतरा सहजिह में घुलि जाय।
रहिमन यह अचरज लखो सोऊ खैंचत बाय॥९३॥
बिगरी बात बनै नहीं लाख करौ किन कोय।
रहिमन बिगरे दूध को मथै न माखन होय॥९४॥
मथत मथत माँखन रहै दही मही बिलगाय।
रहिमन सोई मीत है भीर परे ठहराय॥९५॥
होय न जाकी छाँह ढिग फल रहीम अति दूर।
बाड़ेहु सो बिन काज ही जैसे तार ख़जूर॥९६॥