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कविता-कौमुदी
 

सर सूखे पंछी उड़ैं और सरन समाहिं।
दीन मीन बिन पच्छ के कछु रहीम कहँ जाहिं॥३२॥
धूर धरत नित शीश पर कहु रहीम किहि काज।
जिह रज मुनि पत्नी तरी सो ढूँढ़त गजराज॥३३॥
दीन सबन को लखत है दीनहिं लखै न कोय।
जो रहीम दीनहिं लखैं दीनबन्धु सम होय॥३४॥
राम न जाते हरिन सँग सीय न रावण साथ।
जो रहीम भावी कतहुँ होति आपने हाथ॥३५॥
कहु रहीम कैसे निभै बेर केरु को संग।
वे डोलत रस जा रहीम आपने उनके फाटत अंग॥३६॥
जो रहीम ओछो चढ़ै तौ तितही इतराया।
प्यादे से फरज़ी भयो टेढ़ो टेढ़ो जाय॥३७॥
खीरा को मुँह काटिके मलियत लोन लगाय।
रहिमन करुये मुखन की चहिये यही सजाय॥३८॥
नैन सलोने अधर मधु कहु रहीम घटि कौन।
मीठो भावै लौन पर अरु मीठे पर लौन॥३६॥
जो विषया संतन तजी मूढ़ ताहि लपटाते।
ज्यों नर डारत वमन कर श्वान स्वाद सों खात॥४०॥
जो रहीम दीपक दशा तिय राखत पद ओट।
समै परेते होति है वाही पटकी चोट॥४१॥
रहिमन राज सराहिये शशि सम सुखद जो होय।
कहा बापुरी भानु है तप्यौ तरैयन खोय॥४२॥
कमला थिर न रहीम कहि यह जानत सब कोय।
पुरुष पुरातन की बधू क्यों न चंचला होय॥४३॥
रहिमन कहत सुपेट सों क्यों न भयो तू पीठ।
रीतें अनरीतें करत भरे बिगारत दीठ॥४४॥