राणा जी पर बड़ी श्रद्धा रहने लगी। इसका बदला चुकाने के लिये इन्होंने एक बार अकबर को मेवाड़ पर एक बड़ी चढ़ाई करने से रोका था। राणा जी के विषय में इन्होंने राजपूतानी बोली में बहुत से दोहे बनाये थे। उनमें से एक यह है—
भ्रम रहसी रहसी धरा खिसजासे खुरसाण।
अमर विसम्भर ऊपरे रखियौ नहचौ राण॥
रहीम ने संस्कृत, हिन्दी और फ़ारसी आदि भाषाओं में बड़ी विलक्षण कविता की है। इनके रचे हुये निम्नलिखित ग्रन्थों का नाम प्रसिद्ध है:—रहीम सतसई, बरवै नायिका भेद, रास पंचाध्यायी, शृंगार सोरठ, मदनाष्टक, दीवान फ़ारसी और वाक्यात बाबरी का फ़ारसी अनुवाद। इनमें द्वितीय ग्रंथ छपा हुआ मिलता है। शेष ग्रन्थों का पता नहीं चलता। रहीम सतसई के २१२ दोहे मिश्रबंधुओं के पास हैं। इनकी कविता का कुछ नमूना हम नीचे प्रकाशित करते हैं—
(रहीम सतसई)
कहि रहीम इक दीपतें प्रगट सबै द्युति होय।
तनु सनेह कैसे दुरै दृग दीपक जरु दोय॥१॥
तरुवर फल नहि खात हैं सरवर पियहिं न पान।
कहि रहीम परकाज हित सम्पति सुबहिं सुजान॥२॥
जिहि रहीम चित आपनों कीन्हों चतुर चकोर।
निशि वासर लागो रहै कृष्णचन्द्र की ओर॥३॥
रीति प्रीति सबसों भली बैर न हित मिल गीत।
रहिमन याही जनम की बहुरि न सङ्गति होत॥४॥
कहि रहीम धन बढ़ि घटे जात धनिन की बात।
घटे बढ़े उनको कहा घास बेंचि जे खात॥५॥