दिये। इस अवसर पर इन्होंने यह दोहा रीयाँ नरेश को सुनाया था—
चित्रकूट में रमि रहे रहिमन अवधनरेश।
जापर विपदा परति है सो आवत यहि देश॥
गोसाईं तुलसीदास जी से भी इनका परिचय था। एक बार एक याचक ब्राह्मण को तुलसीदास जी ने इनके पास भेजा, उसे अपनी कन्या का विवाह करने के लिये कुछ धन चाहिये था। तुलसीदास जी ने यह आधा दोहा भी लिख भेजा था—
"सुरतिय नरतिय नागतिय, यह चाहत सब कोय"
रहीम ने उस ब्राह्मण को बहुत सा धन देकर उस दोहे को इस तरह पूरा करके तुलसीदास जी के पास भेज दिया:—
"गोद लिये हुलसी[१] फिरें तुलसी से सुत होय"
रहीम बड़े सहृदय कवि थे। इनको संसार का बहुत अनुभव था। सं॰ १६८२ में इनका देहान्त हुआ। अकबर के आजीवन शत्रु महाराणा प्रतापसिंह पर इनकी बड़ी श्रद्धा थी। इनके दोहों में नीति और ज्ञान की बातें भरी हैं। इनकी उपमाएँ हृदय को मुग्ध कर लेती हैं। इन्होंने कई पुस्तकें लिखी थीँ। परन्तु उनमें सब अब नहीं मिलतीं।
ये महाराणा प्रतापसिंह की देश भक्ति और स्वाभिमान की बड़ी प्रशंसा किया करते थे। एक बार इनके घर की बेगमें राजपूतों के हाथ पड़ गईं। राणा जी ने बड़े ही आदर के साथ उनको रहीम के पास भेज दिया। तब से रहीम की
- ↑ हुलसी, तुलसीदास जी की माता का नाम था।