पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/२०८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
नरोत्तमदास
१५३
 

वेई सुरतरु प्रफुलित फुलवारिन में, वेई सुरवर हंस
बोलन हिलन को। वेई हेम हिरन दिशान दहलीजन में, वेई
गजराज हय गरज गिलन को॥ द्वार द्वार छड़ी लिये द्वार
पौरिया जो खड़े, बोलत मरोर बरजोर ज्यों झिलन को।
द्वारका ते चल्यो भूलि द्वारका ही आयो नाथ, माँगिहैं न मोवै
चार चामर मिलन को॥४२॥

जगर मगर ज्योति छाय रही चहुँ दिशि, अगर बगर
हाथी घोड़न कौ शोर है। चौपड़ को बन्यो है बजार पुनि
सोनन के, महल दुकान की कतार चहुँ ओर है। भीड़भाड़
धकापेल चहुँ दिशि देखियत, द्वारकाते दूनों यहाँ प्यादेन को
जोर है। रहिबो को ठाम हैं न काहू सों पिछान मेरी, बिन
जाने बसे कोऊ हाड़ मेरे तोर है॥४३॥

फूटी एक थारी बिन टोंटनीकी झारी हुती, बाँस की
पिटारी औ पथारी हुती टाटकी। बेंटे बिन छुरी औ कमंडलु
हौ टोकवो हौ, टूटो हतो पोपौ पाटी टूटी एक खाटकी। पथ-
रौटा काठकी कठौता कहूँ दीसै नाहिं, पीतर को लोटो हो
कटोरो है न बाटकी। कामरी फटी सी हुती डोड़न की माला
नाक,गोमती की माटी की न सुध कहूँ माटकी॥४४॥