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कविता-कौमूदी
 

लोचन पूरि रहे जल सो प्रभु दूरते देखतही दुःख मेट्यो।
सोच भयो सुरनायक के कलपद्रुम के हिय माँझ खखेट्यो॥
काँपि कुबेर हिये सर से पग जात सुमेरहु रंक से सेट्यो।
राज भयो तबही जबही भरि अंग रमापति सों द्विज भेंट्यों॥१७॥
ऐसे बिहाल बिवायन सों भये कंटक जाल लगे पुनि जोये।
हाय महा दुःख पायो सखा तुम आये इतै न कितै दिन खोये॥
देखि सुदामा की दीन दशा करुणा करिके करुणानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुये। नहिं नैनन के जल सों पग धोये॥१८॥

तंदुल त्रिय दीने हुते आगे धरियो जाय।
देखि राजसंपति विभव दै नहि सकत लजाय॥१९॥
अंतरयामी आप हरि जानि भक्ति की रीति।
सुहृद सुदामा विप्रसों प्रकट जनाई प्रीति॥२०॥
कछु भाभी हमको दियो सो तुम काहे न देत।
चाँपि गाँठरी काँख में रहें कहो किहि हेत॥२१॥

आगे चना गुरु मात दिये ते लिये तुम चाबि हमैं नहिं दीने।
श्याम कही मुसकाय सुदामासों चोरिकी बानि में हौजुप्रवीने॥
गाँठरी काँख में चापि रहे तुम खोलत नाहिं सुधारस भीने।
पाछिली बानि अजौ न तजी तुम वैसे ही भाभीके तंदुलकीने॥२२॥

खोलते संकुचित गाँठती चितवत हरिकी ओर।
जीरण पट फट छुटी परे बिखरि गये ते हिठोर॥२३॥

तंदुल माँगत मोहन विप्र सकोच ते देत नहीं अभिलाखे।
है नहिं पास कछू कहिके तहि गोपि धनी विधि काँखमें राखे॥
सो लखि दीनदयालु तहाँ यह चोरी करी तुम यों हँसि भाखे।
खोलके पोट अछोट मुठी गिरिधारण चामर चावसों चाखे॥२४॥
काँप उठी कमला मन सोचत मों सों कहा हरि को मन ओंको।
ऋद्धि कँपी नवनिद्ध कँपी सब सिद्धि कँपी ब्रह्म नायक धोंको॥